बुधवार, 28 मई 2014

(लघुकथा) काम



वे दोनों अच्छे दोस्‍त थे. एक ही ऑफ़ि‍स में काम करते थे. उसका दोस्‍त रोज़ खुशी-खुशी उससे पहले ऑफ़ि‍स पहुंच जाता. लेकि‍न इसे काम पर जाने के नाम से ही सांप सूंघने लगता. 

एक दि‍न उसके दोस्‍त ने समझाया, यूं रोने-धोने से कुछ होगा क्‍या ! सोचो, रि‍टायर होकर भी तो घर ही पड़े रहोगे ना, पर वो भी आख़ि‍र कि‍तने दि‍न. उसके बाद ? देखो, आफ़ि‍स वो दूसरी जगह है जहां चार लोगों से मि‍ल बैठते हो. तुम्‍हारे पास वहां अपना पर्सनल स्‍पेस है, सुवि‍धाएं हैं, कोई तुम्‍हारे काम में टांग नहीं अड़ाता. वहां कोल्‍हू के बैल भी तो नहीं हो ना तुम. काम भी इतना नहीं कि‍ मर-मर के करना पड़े. सुस्‍ता भी सकते हो. उनकी भी सोचो जो काम चाहते हैं पर, तो भी उन्‍हें मि‍लता नहीं. काम करते हो तो समाज में लोग भी पूछते हैं, चार पैसे का सहारा अलग. अब मर्जी तुम्‍हारी है कि‍ तुम्‍हें काम करना सही लगता है या घर पड़े रहना.

आज उसे पहली बार लगा कि‍ नि‍रापद जीने से कहीं अच्‍छा है, काम करने वालों में गि‍नती हो उसकी. अब काम के नाम से उसका दि‍ल नहीं बैठता.
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