शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

(लघु कथा) कहानी एक और राजे की



एक बहुत बड़े देश में एक राजा था. राजा निरंकुश था. अपने राज में वह अपनी मनमानी करता था. किसी से नहीं डरता था. उसके सेनापति को उसकी गतिविधियों की जानकारी न होने का भ्रम सदा ही बनाए रखा जाता था, कम से कम देश को तो यही लगता था. देश की प्रजा अपने-अपने काम धंधों में लगी रहते थी और निर्विकार भाव से देश के लिए धनोपार्जन करती रहती थी.

उसी देश में एक स्वामी जी भी रहते थे. स्वामी जी राजा की तुलना में प्रकांड ज्ञानी थे. स्वामी जी को राजा का यूं राज करना फूटी आंख न सुहाता था क्योंकि दोनों ही देश के एक ही क्षेत्र से थे पर एक राजा दूसरा रंक. एक दिन स्वामी जी ने राजा को गिराने की भीष्मप्रतिज्ञा के साथ चाणक्य की ही तरह जटा खोली और राजा की जड़ों में मट्ठा डालने में जुट गए. और भाग्य का खेल देखिए, वही हुआ, स्वामी जी ने भी ठीक चाणक्य की ही तरह अपने प्रयासों में सफलता पाई और राजा को नंद वंश की ही तरह जड़-मूले से उखाड़ फेंका. इसके बाद का लिखित इतिहास नहीं मिलता है कि मौर्यवंश की ही भांति किसी सम्राट अशोक की प्रतिस्थापना उस देश में हो पाई या नहीं. देश की प्रजा पहले ही तरह अपने-अपने काम धंधों में लगी रह कर निर्विकार भाव से देश के लिए धनोपार्जन करती रही.
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