शनिवार, 7 अप्रैल 2012

(लघुकथा) कहां कम्प्लेंट करे रुल्दू राम

रुल्‍दू राम बहुत दु:खी था. उसने नया मोबाइल कनेक्‍शन ख़रीदा था जि‍सका बि‍ल अनाप-शनाप ही नहीं आ रहा था, बल्‍कि‍ उस उल्‍टे-सीधे बि‍ल को भरने के तकाज़े को लेकर भी दि‍न में कई-कई बार फ़ोन आ रहे थे. वो कुछ कहने की कोशि‍श करता तो उसे बता दि‍या जाता कि‍ वे तो कॉल-सेंटर से केवल तकाज़ा वि‍भाग देखते हैं, कंप्‍लेंट के लि‍ए तीन डि‍जि‍ट वाले नंबर पर बात करे वो. उस नंबर पर कोई बात नही करता था बस एक के बाद बटन ही दबाते चले जाने के नए-नए मशीनी निर्देश आते रहते थे और अंत में यह कहा जाता था -'आप फलां डब्‍लू डब्‍लू डब्‍लू पर भी कंप्‍लेंट लॉज कर सकते हैं.’

इसे संकेत मान कर वह सर्वि‍स प्रोवाइडर की साइट पर गया तो उसे सबसे पहले ख़ुद को रजि‍स्‍टर कराने का नि‍र्देश मि‍ला, रजि‍स्‍टर करने की कोशि‍श की तो उसकी हैरानी और बढ़ाते हुए कम्‍प्‍यूटर ने बताया कि‍ उसके मोबाइल नंबर से तो वह पहले से ही रजि‍स्‍टर्ड है. लेकि‍न उसे न तो यूज़र आई. डी. पता थी न ही पासवर्ड इसलि‍ए अब वो कुछ नहीं कर सकता था. उसे कोई नहीं बता पाया कि‍ वह कहां जाकर शि‍कायत करे. शि‍कायत करने के लि‍ए बेवसाइट पर न तो कि‍सी का नाम था न ही कोई डेज़ि‍गनेशन और न ही भरोसे का फ़ोन नं., दफ़्तर का पता भी कि‍सी पोस्‍ट बॉक्‍स नंबर पे था.

रुल्‍दू राम ने अपना रोना एक जानकार के आगे रोया तो उसके जानकार ने राय दी –‘देखो भई, मैं तो इस तरह की कंपनि‍यों और ऐसे ही प्राइवेट बैंकों के बस एक-एक शेयर ख़रीद रख छोड़ता हूं. उसके बाद वो आए दि‍न अपनी पूरी जानकारी वाली वार्षि‍क-रि‍पोर्टें भेजते रहते हैं, मैं तो इनके डायरेक्‍टरों को उनके नाम से कम्‍प्‍लेंट भेजता हूं. फ़रक़ पड़ता है.’
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