
आज वह कुछ लेट हो गया था. घर से दुकान तक, बड़ी तेज़ी से स्कूटर चला कर
पहुंचा था. एक चौराहे पर सिग्नल भी फलांग गया. आते ही उसने भट्टी पर खड़े लड़के
को डांटा-‘देखता नहीं, तेल कितना गर्म हो गया है ? गैस
कम कर.’ हाथ का थैला दूसरे को थमाया. और जैसे ही कुर्सी खींच कर ऊपर मूर्ति की ओर बढ़ना चाहा तो देखा कि उस कुर्सी पर तो कोई ग्राहक बैठा अपनी बारी का
इंतज़ार कर रहा है. उसने कुछ रूखाई से कहा –‘भाई साहब आप जरा उधर खड़े हो जाइए.’
वह आदमी उठ खड़ा हुआ, उसने कुर्सी खींची और उस पर चढ़ कर पूजा करने लगा. आंख बंद
कर जैसे ही उसने प्रार्थना शुरू की तो उसे लगा कि मूर्ति आज कुछ मुस्कुरा रही है. उसने फिर ध्यान लगाना चाहा तो उसे कि लगा कि
जैसे मूर्ति बुदबुदा रही हो -‘अरे ! अभी तो तूने मुझे कुर्सी
से उठा कर बाहर भेज दिया. अब यहां कर रहा है...’ उसने यकायक आंखें खोल कर देखा, मूर्ति न तो मुस्करा रही थी न ही कुछ बोल रही थी.
उसने पीछे घूम कर देखा, वह आदमी वहां नहीं था. वह धीरे से उतर कर दुकान के
बाहर गया. वह आदमी उसे कहीं नहीं दिखा.
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