इत्ते सारे तरह-तरह के
दुरंगे से सतरंगे तक, एक से एक धुरंधर नेता पार्टियों से निकाले जा रहे हैं तो
कुछ अपनी-अपनी मर्जी से ही यहां-वहां डोलने चले जा रहे हैं. ऐसे में मेरे एक मित्र
के पास बहुत अच्छा मौक़ा है, मौक़ेबाज़ों से फ़ायदा उठाने का. सोचता है कि वह भी
इन्हें भर्ती करने के लिए एक दल बना ही ले. उसका एक लंगोटिया यार है, सबसे पहले
उसी से यह यूरेका प्लान शेयर किया. वो तो बल्लियों कूदा –‘वाह बॉस, सही आइडिया
है. तू इस दल का प्रधान बन जाना, मैं उपप्रधान.’ उसने चेताया, नहीं भई मैं दल
बनाने का इरादा रखता हूं दलदल नहीं. लंगोटिए ने मुंह तो बनाया पर कुछ कहा नहीं,
हो सकता है भविष्य में उसे भी कुछ उम्मीद
हो ही गई हो.
वह तो यह भी सोच रहा है कि
अगर दल कुछ ठीक-ठाक सा सैट हो जाए तो आगे
चल कर इसे किसी काम के बंदे को बेच भी सकता है, ठीक वैसे ही जैसे कई लोग नई-नई
कंपनियां बना कर उन्हें कुछ चलता-फिरता कर देते हैं और फिर मौक़ा लगते ही
दूसरों को बेच आगे निकल लेते हैं. आख़िर वे दोनों ही मुनाफ़े के धंधे में हैं.
वैसे इस दौरान कुछ जनसेवा-देशसेवा भी हो जाए तो वाह क्या बात है. आम के आम गुठलियों के दाम अलग. वर्ना वह तो
ऐसों-ऐसों को जानता है जो बस यूं ही अपनी दुकानों में अपने-अपने नाम के दल और
मोर्चे बनाए बैठे हैं जो बस पुलिस की हफ़्ता-वसूली से बचाने भर के काम आते हैं.
और, वे कभी-कभार चुनाव-शुनाव में पर्चा तभी भरते हैं जब उन्हें माल-मत्ता खा कर
बिठाने का जुगाड़ हो जाए और जमातन की रकम अलग से मिले. बाद में उनके विज़िटिंग
कार्ड पर पूर्व प्रत्याशी और जुड़ जाता है. वह तो फिर भी एक बहुत दूरदर्शी और राष्ट्रव्यापी
सोच की बात कर रहा है. उसका भविष्य तो चकाचक होना बनता ही है.
समस्या बस इतनी सी है कि
चुनाव-चिन्ह के बारे में आश्वस्त नहीं है क्योंकि इस पर चुनाव आयोग का एकाधिकार
है. अगर दल के नाम के साथ-साथ चुनाव-चिन्ह का पेटेंट और कॉपीराइट भी फ़्री कर दिया
जाए तो बहुत ही बढ़िया हो. हमारे देश में आख़िर चुनाव-चिन्ह तो दल के नाम से
भी बड़ा ब्रैंड होता है. चुनाव-चिन्ह तो पार्टी और प्रत्याशी से भी कहीं ज्यादा
बड़ा होता है. मौक़ा आने पर लोग इसी पर तो बटन दबाते हैं, तब बाकी को कौन पूछता
है. वह बहुत सीरियसली सोच रहा है कि दल की मशहूरी शुरू करने से पहले ही एक
पी.आई.एल. भी किसी चलते पुर्जे से ठुकवा ही दे कि हरेक दल का चुनाव-चिन्ह भी
उसकी बपौती घोषित किया जाए क्योंकि किसी भी दल को चुनाव-चिन्ह पॉपुलराइज़
करने में बहुत समय लगता है और ढेर सारे नोट खरच होते हैं सो अलग. इससे भावी दल की
मशहूरी तो मुफ़्त में हो ही जाएगी साथ ही साथ दल-बिक्री के समय ब्रैंड की गुडविल
कीमत अलग से वसूली जा सकेगी.
उसकी स्कीम के मुताबिक़, दल
को ख़रीदने का पहला अधिकार दल के लीडरों को दिया जाएगा क्योंकि उन्हीं में से
सबसे बड़ी आसामी उसे ख़रीदना चाहेगी. उसके बाद पीढ़ी दर पीढ़ी दल को बपौती की तरह
इस्तेमाल करे भी तो किसी को क्या, कोई यह मुद्दा उठा ही नहीं सकता. इससे, आने
वाले समय में दल में नाहक टूट-फूट की संभावनाएं भी कम हो जाएंगी क्योंकि किसी
को मलाल नही रहेगा कि दल के लिए उसने बहुत काम किया. किया भी तो क्या हुआ, यह
तो दल में रहने के लिए उसका फ़र्ज़ था ही. इससे भारत के लोकतंत्र में एक नई रीत
शुरू होगी कि भई फलाने की अपनी पार्टी है, वो जैसा चाहे उसे चलाए. यूं भी हमारे
यहां आज ढेरों दल हैं पर सब के सब यूं ही उग आए हैं, बिना किसी ठोस पद्धति के.
जब इस तरह के, वैज्ञानिक रीति पर आधारित दल बनने लगेंगे तो भविष्य में राजनीति
शास्त्र के शोधार्थी इस क्षेत्र में उसके आमूल-चूल योगदान को भुला नहीं पाएंगे और
हॉब्स, लास्की बगैहरा के साथ उसका नाम भी उन्हें लेना ही पड़ेगा.
उसके बनाए दलों के लोग, आने
वाले समय में निश्चय ही देश चलाएंगे, ऐसे में उसके नाम से सरकारी सम्मानों की
तो बाढ़ आ ही जाएगी सो अलग.
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IPL Style !
जवाब देंहटाएंIPL Style !
जवाब देंहटाएंबढ़िया आइडिया है यार !
जवाब देंहटाएंसही है दल बनाने को इन्वेस्टमेंट की तरह लिया जाये, इस से ज्यादा कुछ नहीं। व्यंग्य, ताज़गी भरा …
जवाब देंहटाएंwhat an idea ..... :)
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