गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

(लघु कथा) निरापद

उसे बड़ा अच्छा लगता था धरने-प्रदर्शनों में भाग लेना. जैसे श्मशान, शादी, जलसों बगैहरा के लिए शहर में अलग अलग जगहें निश्चित रहती हैं ठीक वैसे ही सरकार ने विरोध प्रदर्शनों के लिए भी शहर में एक जगह तय कर रखी थी. वह उसी जगह के आस पास रहता था जहां आकर ये विरोध-प्रदर्शन समाप्त होते थे. उसे पता था कि पुलिस और प्रदर्शन के आयोजकों के बीच किस-किस दिन क्या-क्या तय रहता था.



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उसने कभी उचक-उचक कर नारे नहीं लगाए. वह तो बस, सब कुछ देख कर भी कुछ नहीं देखता था. वह इंतज़ार करता था प्रदर्शन समाप्ति के बाद मिलने वाले खाने का. गर्मियों में, जब भी कभी प्रदर्शनकारियों पर पानी की बौछार का इंताज़ाम होता तो वह उस दिन भीड़ में ज़रूर रहता –‘चलो नहाने का काम बैठ-ठाले ही हो गया.’ वर्ना उसे नहाने का पानी कहीं नसीब नहीं होता था. कपड़े के झंडे-बैनर उसके बहुत काम आते थे. सर्दियों में, वह नेताओं के पुतले जलाए जाने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करता. और रात भर उसी अलाव के किनारे दो-एक कुत्तों के साथ आराम से रात बिता देता.
उन सर्दियों में एक नया थानेदार आया. उसने वहां भी धरने-प्रदर्शनों पर रोक लगा दी. ग़जब की ठंड पड़ी उस साल और एक सुबह वह झंडे-बैनरों के नीचे ठंड से अकड़ कर मरा पाया गया.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. एक बहुत ही गरीब आदमी की ज़िंदगी कि हकीकत को ब्यान करती बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति...

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  2. मार्मिक व्यंग्य प्रेम चंद की पूस की रात की याद दिला गया .कृपया सार्दियों शब्द ठीक करलें (सर्दियों )कर लें .

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  3. बेचारा,अभिव्यक्ति के दमन का मारा ...

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