शनिवार, 24 दिसंबर 2011

(लघु कथा) ख़ुशफ़हमी


एक नेता जी थे और एक थी भीड़.
भीड़ नेता जी की कोठी पहुंची. नेताजी ऊपर वाले मकान की बालकनी में आए.
नेता जी को देख गुस्साई भीड़ ने पत्थर पकड़े हाथ ऊपर उठाए. नेता जी ने समझा लोग जय जयकार कर रहे हैं.
कुप्पाए नेता जी ने खुशी ख़ुशी स्वीकारोक्ति में हाथ जोड़े, भीड़ को लगा नेता जी ने हाथ जोड़ कर माफ़ी मांग ली है.
नेता जी वापिस अंदर चले गए. भीड़ के लोग भी तितर बितर हो अपने अपने घर हो लिए.
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6 टिप्‍पणियां:

  1. संकट में डालती हैं गलत फहमियाँ। संकट मिटाती हैं खुशफहमियाँ। मगर जब शुशफहमी टूटती है तो बहुत बुरा होता है।
    शब्दपुष्टिकरण किसका तुष्टिकरण करता है?

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  2. आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट "उपेंद्र नाथ अश्क" पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है । धन्वाद ।

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  3. गजब की अभिव्यक्ति , बहुत ही प्रभावी लघु कथा

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