छुटपन
में,
ले
कर कुछ दाने गेहूं के
बो
देते थे कहीं भी.
फिर
कुछ कुछ पानी डाल
करते
थे इंतज़ार
पौधे
उगने का.
रोज़
सुबह उठ
सबसे
पहले जा देखते थे
कि
पौधा आज तो उगा ही होगा.
...
एक
दिन जब ज़मीन से
हरी
कोपलें फूटती थीं तो
हैरानी
से देखते हुए खुश होते और
धीरे
से खींच लेते थे उन्हें मिट्टी
से बाहर
ये
देखने के लिए कि
नीचे
दबे गेहूं के दाने अब कैसे
हैं.
आज
सोचता हूं तो लगता है
उफ़्फ,
वो
कैसे कर डालते थे हम!
शायद
हम अनजान थे.
पर
देखता
हूं आज;
अर्थ
जानने के बावजूद
कैसे क्रूर हो सकते हैं लोग !
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