मंगलवार, 9 सितंबर 2014

(लघुकथा) व्यवहार



उसने पूरी जिंदगी नौकरी करते हुए गुजार दी. उनके एक बेटा और बेटी थे. बेटा कुछ छोटा-मोटा काम कर रहा था. बेटी की शादी की चिन्ता में पाई-पाई जोड़ते हुए वे सदा घुलते रहे. पैसे बचाने की गरज से हमेशा किराए के मकानों में रहे. आज बेटी की शादी का दिन भी आ ही गया. धीरे-धीरे इकट्ठे किये हुए सामान जुटाए. हैसियत के हिसाब से उधार लिया और जैसे-तैसे शादी निपटा ही दी. पर शादी मेँ ख़र्चा कुछ ज्यादा ही हो गया था.
सबके शादी-व्यवहार में उसने ज़िम्मेदारी सदा निभाई. और अब पत्नी के साथ बैठ, शादी में मिले लिफ़ाफ़े खोलते हुए उसे बार बार यही ख़्याल आ रहा था कि क्या लिफ़ाफ़ों में से इतने रुपए निकलेंगे कि उसका कर्ज़ उतर जाए. तभी उन्हें एक मोटा सा लिफ़ाफ़ा दिखाई दिया. उलट-पलट कर देखा, उस पर किसी का नाम नहीं था. खोल कर देखा तो उसमें काफी रुपए थे. उन्होंने ध्यान से देखा, रुपयों से भरे ऐसे ही कुछ और अनाम लिफ़ाफ़े अभी भी खोलने बाक़ी थे.

उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. उनकी आंखें बस डबडबाई हुईं थीं.
00000

9 टिप्‍पणियां:

  1. कथा में कोई नयापन नहीं है ! बिटिया इक बोझ सी ! उसकी शादी की चिंता ! उसकी विदाई के साथ कुछ देने का जुगाड़ करते अपना वर्तमान और सहज जीवन स्वाहा :(

    बहरहाल इसका सार तत्व है दोगे सो पाओगे !

    जवाब देंहटाएं
  2. पिता की डबडबाई आँखों ने समझ लिया कि बेनाम लिफ़ाफे बेटी ने रखे हैं (मेरी कल्पना ने एक नई सोच को जन्म दिया) लघु कथा की अंतिम पंक्ति में सारा सार छिपा है !

    जवाब देंहटाएं
  3. व्यवस्था नहीं बदलेगी तो कोई नयापन कहाँ से आएगा
    यही क्या कम है कि अपने टुकड़े ने दर्द को यूँ समझा

    जवाब देंहटाएं
  4. your writing skills and thoughts are heart touching keep it up dear
    our blog portal is http://www.nvrthub.com

    जवाब देंहटाएं