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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

(लघु कथा) जीवन



वह लंबे समय बाद अपने पुश्‍तैनी गांव आया था. गांव आना अब कम ही होता है उसका. मां रही नहीं पि‍ता अकेले रहते हैं गांव में. वही अब खेती-बाड़ी देखते हैं.

सर्दी की धूप अच्‍छी खि‍ली हुई थी. आज घर में चहल पहल थी. कई रि‍श्‍तेदार इक्‍ट्ठा हुए थे. बातों के साथ-साथ, रसोई से बर्तनों की आवाजें आ रही थीं. आंगन में, पि‍ता के साथ चारपाई पर बैठा वह अपनी बेटी को भाग-भाग कर काम करते देख रहा था. आज उसकी इसी बेटी की सगाई का दि‍न था. ‘देखते ही देखते तेइस साल कैसे उड़ गए पता ही न चला. इसका जन्‍म, अभी कल की सी ही बात लगती है.’-उसने पि‍ता से कहा.

‘और ज़िंदगी के जो बाकी कुछ साल बचे हैं वे भी ठीक यूं ही मुट्ठी का रेत हो रहे हैं.’-उसके पि‍ता ने हुक्‍के का एक और कश लेते हुए धीरे से कहा.

दोनों चुप थे पर उनके बीच बात अब भी हो रही थी. 

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मंगलवार, 17 जून 2014

(लघुकथा) पि‍ता



वह लंबी नौकरी के बाद रि‍टायर हो गया था. बेटा नालायक नि‍कला. बेटी की उमर बढ़ती जा रही थी पर रि‍श्‍ता कहीं हो नहीं पा रहा था. पत्नी की तबीयत भी कुछ ठीक नही रहती थी. ग़नीमत थी कि‍ नौकरी पेंशन वाली थी, कि‍सी तरह गुजर बसर हो रही थी. पत्‍नी जब देखो तब बेटे को कोसती, बेटी पर ताने कसती और उससे खीझती रहती.
 
वह आज फि‍र दुखी थी –‘आपको क्‍या कहूं. यह नहीं कि‍ कि‍सी को कहलवा कर बेटे को कहीं रखवा देते. मंदि‍रों में माथा टेक-टेक भरपाई मैं, बेटी है कि‍ पहाड़ सी बैठी ही हुई है मेरी छाती पर. पर आपको क्‍या आपके तो कान पर जूं तक नहीं रेंगती. बस मैं ही हूं जो चौबीसों घंटे चिंता में घुलती रहती हूं...’

उसने एक लंबी और गहरी सांस ली -‘उफ़्फ आदमी होना कि‍तना मुश्‍कि‍ल है, वह तो रो भी नहीं सकता.’ बुदबुदाते हुए वह धीरे से बाहर नि‍कल गया. 

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मंगलवार, 25 जून 2013

(लघुकथा) पि‍ता







पि‍ता –‘अजी सुनती हो, हमारे बेटे को खेल-कूद और यारों-दोस्‍तों से कभी फ़ुर्सत नहीं रही, वो हमेशा से ही उछल कूद करने वाला हंसमुख बच्‍चा रहा है. यहां तक कि कभी कभी तो वो मुझ से भी मज़ाक कर लि‍या करता था. कॉलेज पास करने के बाद भी उसमें कोई खा़स बदलाव नहीं आया. ठीक है, उसे कुछ समय तक कोई बहुत बड़ी नौकरी नहीं मि‍ली पर फि‍र भी, अब उसे एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में काम तो मि‍ल ही गया है न. तुम कह रही थी कि उसकी तन्ख्‍वाह भी बुरी नहीं है. पर कुछ समय से देख रहा हूं कि वह बुझा-बुझा सा रहता है, यार दोस्‍तों के साथ उठना बैठना भी कम कर दि‍या है उसने, कई बार तो उसे फ़ोन पर दोस्‍तों से लगभग लड़ते भी सुना है मैंने, कुछ चि‍ड़चि‍ड़ा सा भी हो गया है वो. क्‍या तुम्‍हें नहीं लगता कि वह तुनुक-मि‍जाज़ हो गया है और कई बार तो एक दम से गुस्‍सा करने लगता है ! ज़रा पूछना तो उसे, क्‍या बात है !’

मॉं –‘अजी पूछना क्‍या है, टेलीमार्केटिंग कंपनी में है, फ़ोन पर सारा-सारा दि‍न लोगों की झि‍ड़कि‍यां सुनेगा तो और क्‍या होगा जी!’
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