रविवार, 4 मार्च 2012

(लघुकथा) औरत और औरत

वो एक बहुत बड़ी बि‍ल्‍डिंग के काम पर लगी थी. सि‍र पर तसला-ईंट ढोती थी वो अधेड़ सारा दि‍न. लोग उसे ए कहकर बुलाते थे हालांकि‍ उसका नाम कमला था. शादीशुदा थी, मर्द भी वहीं-कहीं कुछ दूसरा काम देखता था. चारों तरफ धूल-मि‍ट्टी उड़ती, वो झट पल्‍लू से मुंह झाड़ लेती. कभी-कभार शरीर कुछ उघड़ भी जाता, बेलदार लोग मौज ले लेते, वो भी कम ज़ुबानज़ोर न थी, अच्‍छे से हड़का के ‘हत्‍त‘ कर देती. बीच बीच में बीड़ी भी पी लेती. शाम को थक हार कर उसका मरद कहीं से कच्‍ची ले आता तो कुछ वो भी खींच लेती.


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एक दि‍न, उस बि‍ल्‍डिंग की आर्कीटेक्‍ट वहां आई. ठेकेदारों से बात करते-करते उसने एक पतली सी सि‍ग्रेट सुलगा ली. कमला वहां से जाते हुए रूक कर उसे देखने लगी. आर्कीटेक्‍ट को पसंद नहीं आया, उसने दुत्‍कार दि‍या.

चली तो वो गई वहां से, पर उसे समझ नहीं आया कि‍ उसमें और उस सि‍ग्रेट पीने वाली औरत में फ़र्क़ क्‍या था जो उसने यूं डपट दि‍या.

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5 टिप्‍पणियां:

  1. aapki laghukatha prabhavshali hai. aurat ki hod aadmi se hi nahin hain, balki khud aurat se bhi hai. isi se uski ladaai sau din chale adhai kos siddh ho rahi hai.

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  2. apne aap me bahut kuch kah jati hai ye katha

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  3. गरीबी बहुत बड़ा अंतर पैदा कर देती है इंसान इंसान के बीच.

    बहुत जोरदार , दिल को छूने वाली रचना

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  4. बहुत सुन्दर. राजपूत जी से सहमत.

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