दूसरों की देखा-देखी, ललाइन को भी याद हो आया कि कभी अपने पैंतालीस-पचास किलो बजन वाले दिनों उसने भी तो ‘चॉंदनी चॉंद से होती है, सितारों से नहीं...’ जैसी उम्दा शायरी लिखी थी. सो, उसने फिर से कविताएं लिखना शुरू कर दिया. और भगवान की माया, देखते ही देखते उसे पता चला कि वह तो बहुत बड़ी
कवयित्री हो भी गई.
एक दिन, लाला को कहा कि अब कविताओं की किताब छपा दो, मेरा भी बहुत दिल करता है विमोचन कराने को. लाला ने राय दी कि देखो भागवान, बस यूं ही गंवा देने के लिए पच्चीस-तीस हज़ार बहुत बड़ी रकम होती है. जो विमोचन पर जुटाने से दो-चार आएंगे वही तो तुम्हारे रीडर भी हैं, मेरी मानो तो उन्हें यहीं घर पर बुला कर एक गोष्ठी-फोष्ठी कर लो. सब चाय-नमकीन में ही निपट जाएगा और तुम्हारी घरेलू ठाठ
के नक्शे भी दिखा देंगे सो अलग. बात पते की थी. ललाइन
के भी जम गई.
कुछ दिन बाद, एक कवि-मिलन की फ़ोटुएं वाह-वाही के साथ दुनिया भर में, यहां-वहां, खूब शेयर और फ़ारवर्ड होती मिलीं.
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कहानी ने सब कहा :)
जवाब देंहटाएंसुंदर रोचक कथा !!!
जवाब देंहटाएंRECENT POST: जुल्म
...चाँदनी चाँद से होती है टाइप ही कविता संग्रह खूब छप रहे हैं :)
जवाब देंहटाएं’चाँदनी चाँद से होती है’ जैसी शाहकार कविताओं-गज़लों-शेरो-शायरी का सबसे बड़ा प्लस प्वाईंट ये है कि इससे किसी की भावनायें आहत नहीं होतीं :)
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