शनिवार, 20 अप्रैल 2013

(लघुकथा) कुत्‍ता




घर में बच्‍चे अक्‍सर ज़ि‍द करते रहते थे कि उन्‍हें एक कुत्‍ता चाहि‍ए. उसकी अपनी भी बहुत इच्‍छा थी कि,‍ वह भी कुत्‍ता पाले, एकदम शेर जैसा कुत्‍ता. जो बहुत बड़ा और लंबा-चौड़ा शानदार हो. पर कि‍सी न कि‍सी बहाने बात टलती ही चली आ रही थी और कभी कभी तो बि‍ना बहाने भी कुत्‍ता लेने का फ़ैसला नहीं हो पा रहा था. लंबे समय तक बस सब-कुछ यूं ही चलता रहा.
 
लेकि‍न आख़ि‍र वह दि‍न भी आया जब उसने कुता लाने का फ़ैसला कर ही लि‍या. और शाम को जब वह कुत्‍ता लेकर घर पहुंचा तो घर के सभी लोग कुत्‍ते को एक टक देखते रह गए, कोई कुछ नहीं बोला. क्‍योंकि कुत्‍ता शेर जैसा तो क्‍या होता, वह तो कुत्‍ते जैसा भी नहीं था. बल्‍कि वह इतनी छोटी प्रजाति का था कि भरी-पूरी उम्र होने के बावजूद वो बि‍ल्ली के बच्‍चे से बड़ा नहीं लग रहा था.

उसके चेहरे पर बड़ा-बड़ा लि‍खा महानगरीय जीवन का सच साफ देखा जा सकता था.


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