वे
दोनों साथ-साथ खेले, पढ़े और बड़े हुए. दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे. जवानी में एक
समय वह भी आया जब उन्हें दुनिया के दुख-दर्द दिखाई देने लगे. उन्होंने विभिन्न
विचारक पढ़े, क्रांतियों और उनके क्रांतिवीरों की गाथाएं पढ़ीं. मार्क्स की
बातें उन्हें बहुत भायीं. समय बीतता चला गया. दोनों अपनी-अपनी अलग दुनिया में व्यस्त
हो गए.
लंबे
समय बाद, दोनों एक बार फिर मिले. एक मित्र दुनियादार हो गया था, उसने समय के
साथ ताल मिलाते हुए मुस्कुराना भी सीख लिया था. दूसरे की बात करने का सलीका
धीमा था पर बीच-बीच में खौलने की सी बानगी भी देता था. यूं तो दोनों ने खूब बातें
कीं पर अब, पता नहीं उनके बीच कोई दीवार सी थी जो नहीं ही गिरी.
दोनों
ने अपनी-अपनी दुनिया में लौटने से पहले देखा कि एक फ़र्क़ और था, एक के पांव में
अभी भी चप्पल थी, दूसरे के पॉंव में अब जूते थे.
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