बुधवार, 27 मार्च 2013

(कविता) कोपलें


छुटपन में,
ले कर कुछ दाने गेहूं के
बो देते थे कहीं भी.

फि‍र कुछ कुछ पानी डाल
करते थे इंतज़ार
पौधे उगने का.

रोज़ सुबह उठ
सबसे पहले जा देखते थे
कि‍ पौधा आज तो उगा ही होगा.

... एक दि‍न जब ज़मीन से
हरी कोपलें फूटती थीं तो
हैरानी से देखते हुए खुश होते  और
धीरे से खींच लेते थे उन्‍हें मि‍ट्टी से बाहर
ये देखने के लि‍ए कि
नीचे दबे गेहूं के दाने अब कैसे हैं.

आज सोचता हूं तो लगता है
उफ़्फ, वो कैसे कर डालते थे हम!
शायद हम अनजान थे.

पर
देखता हूं आज;
अर्थ जानने के बावजूद
कैसे क्रूर हो सकते हैं लोग !

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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब उस समय अनजान थे किन्तु आज लोग समझते हुए ऐसा करते है ,,,आपको होली की हार्दिक शुभकामनाए,,,

    Recent post: होली की हुडदंग काव्यान्जलि के संग,

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  2. बचपन कितना निर्मल-निस्वार्थ-निर्दोष!

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  3. सच कहा है ...कुछ लोग ऐसा कर के भी कहते हैं आज की हम अंजान हैं ...

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  4. अर्थ जानकार लोग अधिक क्रूर हो जाते है। सुन्दर और मार्मिक कविता काजल भाई

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