गुरुवार, 23 जुलाई 2015

(लघुकथा) चींटि‍यां


उसे अपनी ज़िंदगी से यूं तो कोई शि‍कायत नहीं थी पर फि‍र भी बहुत से ऐसे सवाल थे जि‍नके जवाब उसके पास नहीं थे; कि‍ताबें थीं कि‍ उनमें अलग-अलग तरह की बातें लि‍खी मि‍लतीं. और उन कि‍ताबों से भी उठते दूसरे सवालों के जवाब देने वाला फि‍र कोई न होता. इसी उहापोह में उसने एक बाबा जी का दामन थाम लि‍या. वह बहुत पहुंचे हुए बाबा जी थे लेकि‍न आडंबर से दूर, प्रवचनों से परे, एकदम सादगी भरा जीवन जीते थे. कई बड़े-बड़े लोग उनके शि‍ष्‍य थे. वह अक्‍सर उनके यहां जाता. उसे बाबा की बातों से शांति‍ मि‍लती.

आज भी वह मन की शांति‍ के लि‍ए ही आश्रम आया था. उसने देखा कि‍ आश्रम के बाहर आज कुछ ज्‍यादा ही कारें खड़ी थीं. भीतर जाने पर उसने पाया कि‍ आश्रम के अंदर, गुंडे से दि‍खने वाले कई लोग यहां-वहां नज़र आ रहे थे. वह बाबा जी के कमरे की ओर जा रहा था कि‍ तभी उसने देखा, बाबा जी कि‍सी के साथ बाहर ही आ रहे थे. उसे ध्‍यान आया कि‍ बाबा के साथ आ रहा आदमी तो बहुत बड़ा गैंगस्‍टर है जि‍स पर कई हत्‍याओं का आरोप है. इधर-उधर छि‍तरे उसके साथी भी धीरे-धीरे उनके पीछे चलने लगे. वह वहीं रूक गया. बाबा जी के पास आने पर उसने नमस्‍कार कि‍या. बाबा जी ने मुस्‍कुरा कर सि‍र हि‍लाया और फि‍र बातें करते हुए आगे नि‍कल गए. उसने सुना कि‍ बाबा कह रहे थे –‘तुम रोज़ सुबह चींटि‍यों को आटा डाला करो....’   

उसे कुछ समझ नहीं आया. बहुत से सवाल उसे फि‍र घेरने लगे थे.
00000

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें