'अजी सुनते हो, सेफ़्टी पिन नहीं मिल रहीं. कहीं देखीं ?’
'तुमने ही इधर-उधर रख दी होंगी. ध्यान से ढूंढो.’
उसने बुदबुदाते हुए ड्रॉअर और अल्मारियां बारी-बारी से खोलनी शुरू कर दीं – ‘दिल करता है, आज ही काम से निकाल दूं इसे. जब देखो तब कुछ न कुछ चुपचाप उठाकर ले जाती है. और अगर पूछो तो ऐसे एक्टिंग करती है मानो इस तरह की चीज़ तो कभी हमारे घर में थी नहीं शायद.'
वह अख़बार तो पढ़ रहा था पर देख भी रहा था कि
आज ड्रॉअर और अल्मारियां खोलने-बंद करने की आवाज़ कुछ ज्यादा ही तेज़ थी. उससे नहीं ही रहा गया, पत्नी बुलाया – ‘तुम इसे काम से निकाल ही क्यों नहीं देतीं .'
‘निकाल तो एक मिनट में दूं पर दूसरी कामवाली इतनी आसानी से मिलती कहां है.'
‘यही तो समझाने की कोशिश कर रहा हूं. यह इतने सालों से हमारे यहां काम कर रही है सिवाय छोटी-मोटी चीज़े ले जाने के क्या तुम्हें कभी कोई और शिकायत हुई इससे. मन लगा के काम अच्छा करती है. बिना बात छुट्टियां नहीं करती. इधर-उधर चुगलियां नहीं गाती. अगर हर महीने दो-चार सौ रूपए की चीज़ें यूं ले भी जाती है तो तुम ये मान क्यों नहीं लेतीं कि
चलो तुमने उसकी तन्ख्वाह ही दो-चार सौ रूपए बढ़ा दी.'
आज वह कुछ नहीं बोली और मुस्कुरा कर टेलिविजन देखने बैठ गई.
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