मंगलवार, 14 जुलाई 2015

(लघुकथा) भूत



बहुत भागदौड़ के बाद एक दि‍न, वह एक बहुत बड़ी सरकारी कंपनी में छोटा सा बाउ बन गया. उसे बाबू होने से शि‍कायत नहीं थी, पर छोटा-बाबू होना उसे रास न आता था. उसने यूनि‍यनबाजी कर ली और जल्‍दी ही यूनि‍यन का प्रधान भी हो गया. कंपनी ने नाममात्र के लि‍ए उसे, लोगों की कम्‍प्‍लेंटें लेने का काम सौंप दि‍या. उसके पास हर तरह के लोगों की शि‍कायतें आतीं, कंपनी के अंदर के लोगों की भी और बाहर के लोगों की भी. जब उसका दि‍ल करता, वह उन शि‍कायतों को यहां-वहां भेज देता. 

समय बीतने के साथ-साथ, प्रधानगी उसके सि‍र चढ़ती गई. उसके ही लोग उससे बात करने से कतराने लगे. इस बीच उसकी यूनि‍यन के लोगों ने टूट कर दूसरी यूनि‍यन बना ली, जो बचे रहे उन्‍होंने कुछ समय बाद अलग से तीसरी यूनि‍यन बना ली. उसकी अपनी यूनि‍यन में अब बहुत कम लोग बचे थे और वे भी वो थे जो उसकी अपनी उमर के थे. जबकि‍, नई यूनि‍यनों में वे लोग थे जो कंपनी में नए-नए आए थे. धीरे-धीरे कंपनी ने भी उसे भाव देना बंद कर दि‍या. और नौकरी के आख़ि‍री दि‍न, एक चार्जशीट थमा कर उसे रि‍टायर कर दि‍या. सारे फ़ंड रोक लि‍ए गए.

अब वह ऑफ़ि‍स आता तो शोर मचाता. इसलि‍ए उसे अंदर आने से रोक दि‍या गया. तो वह अपने मसले पर शि‍कायतें फ़ाइल करने लगा. फि‍र आर.टी.आई. लगाने लगा. फि‍र सीनि‍यर सि‍टि‍ज़न होने का वास्‍ता देकर, शि‍कायत ख़ि‍ड़की पर ख़ड़ा हो रोज़-रोज़ अपने पैसे मांगता. और एक दि‍न ख़बर आई कि‍ वह मर गया.

अब कोई भी कर्मचारी उस शि‍कायत ख़ि‍ड़की पर बैठने को तैयार न था. उनका कहना था कि‍ उन्‍हें वह अभी भी उसी खि‍ड़की पर खड़ा दि‍खाई देता है.
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