मेरे
पड़ोसी का बेटा बचपन से ही बड़ा आदमी बनने के ख़्वाब देखा करता था. उसकी चाह पूरी
होती भी दिखने लगी जब पढ़ाई-लिखाई में उसकी कोई रूचि न रही, लेकिन बातों का
पहलवान निकला. और आख़िर वो एक दिन भी आ ही गया जब ‘सीधे बारहवीं करें’ टाइप एक
कॉलेज से उसके लिए स्नातक की डिग्री जुटा
ली गई. पिता ने एक वकील दोस्त की निगेहबानी में समाजसेवा के लिए उसे एक एन. जी.
ओ. खुलवा दी. बाक़ायदा बोर्ड लगाया गया. ख़र्चे की स्कीम बना ली गई. हर तरह के रजिस्टर
और वाउचर भी तैयार कर लिए, बस पैसे आने का ही मसला कुछ बन नहीं रहा था.
पर
उस शाम, उनके घर जश्न का सा माहौल था. बाक़ायदा कुछ सेलिब्रेशन सा चल रहा था. घर
में कई लोग आए हुए थे. हल्के संगीत पर खाना-पीना हो रहा था. बीच-बीच में, ठहाकों की भी आवाज़ बाहर तक आ रही
थी. घर के बाहर कई गाड़ियां पार्क थीं.
मैंने
घर में घुसते हुए पत्नी से पूछा –‘तो इनके बेटे का रिश्ता हो गया क्या ? लड़की वाले कौन लोग हैं जी ?’
‘नहीं
जी. उसकी मां बता रही थी कि एन. जी. ओ. के लिए ग्रांट मिलने की बात आज फ़ायनल हो
गई है.’ – कहते हुए पत्नी रसोई में चली गई.
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